मंगलवार, 22 दिसंबर 2009

18 साल बाद भी न न्याय मिला न मुआवजा

-दस लोगों की जानें गई थीं, 22 घरों में आग लगा दी गई थी
-सनलाइट सेना ने 1991 में दिया था घटना को अंजाम

संजय कृष्ण
मलवरिया नरसंहार को करीब दो दशक बीत गए हैं। लेकिन पीडि़तों को अब तक न न्याय मिल सका और न सरकारी मुआवजा। 1991 में हुए इस नरसंहार में करीब दस लोग मारे गए थे और 22 घरों को आग के हवाले कर दिया गया था।
घटना झारखंड के सर्वाधिक उपेक्षित पलामू जिले के पांडू प्रखंड के मलवरिया गांव में घटी थी। पांडू से 10 किमी पश्चिम मलवरिया गांव में फिलहाल, राजपूतों के 15-20 घर हैं, ब्राह्मïण चार, कहार 10-12, रजवार भी इतने ही, कांदू साव तीन, पासवान दो, बढ़ई एक और हरिजन सात-आठ घर हैं। गांव में घुसते ही राजपूतों की बस्ती पहले पड़ती है। इसके दूसरे छोर पर दलितों और पिछड़ों की आबादी है। गांव की दलित बस्ती आज भी उस भयानक और दिल दहला देने वाले हादसे को भूल नहीं पाई है, जिसमें उसका सर्वस्व छीन गया था। मंगल का दिन था। शाम का समय। जून के महीने की पांच तारीख थी। साल था 1991। महिलाएं खाना बनाने की तैयारी में जुटी थीं कि अचानक पचास से ऊपर की संख्या में आए हथियारबंद समूह ने उनकी बस्ती पर हमला बोल दिया। इस हमले में किसी को संभलने का मौका ही नहीं मिला। जो जहां था वहीं ढेर हो गया। जो खुशकिस्मत थे वे बच गए। पूरी बस्ती आग की लपटों से घिर गई और चीख-पुकार से आकाश थर्रा गया। इस नरसंहार में महिला, बच्चों और बूढ़ों सहित दस लोग मारे गए और दर्जनों घायल। जाते-जाते उन्होंने बस्ती को आग के हवाले कर दिया, जिसमें 22 लोगों के घर जलकर राख हो गए। जले घरों के साक्ष्य आज भी बस्ती में मौजूद हैं, जो रह-रह कर टीस पैदा करते हैं। इस घटना को और कोई नहीं, बल्कि मलवरिया गांव के राजपूत टोले के लोगों ने अंजाम दिया था, जिसका आरोप था कि नक्सली(जन मुक्ति परिषद नामक नक्सली संगठन, जिसकी कमान तब पलामू के सांसद कामेश्वर बैठा व श्याम बिहार कान्दू के हाथों में थी) उनकी बस्ती में आते-जाते हैं। कहा जाता है सनलाइट सेना ने गांव के युवक विनय सिंह की हत्या के विरोध में इस घटना को अंजाम दिया था।
1984 में जन मुक्ति परिषद नामक संगठन मजदूरी भुगतान, गैरमजरुआ जमीन का बंटवारा तथा शोषण को समाप्त करने के लिए खड़ा किया गया था। इसने कुछ ही वर्षों में अपना प्रभाव जमा लिया और गरीबों, पिछड़ों, दलितों का एक तबका इससे जुड़ गया। इसी के विरोध और नक्सलियों से लोहा लेने के लिए ही 1989 में मलवरिया के राजपूतों ने 'सनलाइट सेनाÓ का गठन किया था और इन्होंने पहला नरसंहार अपने ही गांव में किया। इस नरसंहार से संयुक्त बिहार ही नहीं, पूरा देश हिल गया था। उस समय अविभाजित बिहार के तत्कालीन कारामंत्री उदय नारायण चौधरी बतौर लालू यादव के प्रतिनिधि प्रभावित गांव की बस्ती का दौरा किए और पीडि़त परिवारों को एक-एक लाख मुआवजे और नौकरी सहित अन्य लाभों की घोषणा की। लेकिन दाह-संस्कार के लिए मिले 20-20 हजार के अलावा आज तक उन्हें एक पाई भी नहीं मिला। पीडि़ता सुमित्रा देवी, जिसके इस नरसंहार में पुत्र-ससुर सहित पांच लोग मारे गए थे, कहती है कि प्रखंड और कोर्ट का चक्कर लगाते-लगाते बूढ़े पैर थक गए हैं। न मुआवजा मिला न न्याय। बेटा बेरोजगार है, उसे आज तक नौकरी नहीं मिली। अब तो आस और सांस भी टूटने लगी है। वह कातर स्वर में कहती है, हमन के देखे वाला कोई नइखे। यह दर्द केवल सुमित्रा का ही नहीं है, बल्कि राधा कुंवर सहित दर्जनों महिलाओं का है, जिन्हें मुआवजे के नाम पर फूटी कौड़ी भी नहीं मिली और न उन्हें कोई आवास। न्याय तो इनके लिए सपना है। इस नरसंहार में 53 लोगों को नामजद किया गया था, जिनमें अधिकतर राजपूत टोले के लोग थे। पर, आज तक किसी को सजा नहीं मिल सकी।
बस्ती वालों का कहना हैं उनकी दबंगई आज भी बरकरार है। वे कचहरी नहीं जाने के लिए धमकाते हैं। सो, कोई भी पीडि़त पैरवी नहीं करता। इनका दर्द यहीं खत्म नहीं होता। इन पीडि़तों में एक दो को छोड़कर किसी को विधवा पेंशन नहीं मिलता। कार्ड तो किसी के पास नहीं है। सो, न राशन मिलता है न केरोसिन। बीपीएल सूची में भी इनके नाम दर्ज नहीं हैं। जबकि, इनका कहना है कि राजपूत टोले के अधिकांश लोगों के नाम बीपीएल सूची में दर्ज हैं। और तो और दलितों की इस बस्ती में बिजली जलाने की भी मनाही है। यदि जलाने की कोशिश करते हैं तो उनके तार काट कर फेंक दिए जाते हैं। कुछ ऐसी भी अभागिन महिलाएं हैं, जो उस घटना में अपाहिज हो गईं, उन्हें विकलांग पेंशन भी नहीं दिया जाता। हालांकि कामेश्वर बैठा के सांसद बनने से बस्ती वालों में आस जगी थी कि मुआवजा मिलेगा, लेकिन सात महीने हो गए, सांसद ने उनकी सुधि ही नहीं ली।

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

आप छत्तीसगढ़ पुलिस पर भरोसा कर सकते हैं ।।

।। आप छत्तीसगढ़ पुलिस पर भरोसा कर सकते हैं ।।

- जयप्रकाश मानस

वस्तुतः कल्याणकारिता या उपलब्धियों की डंका पीटने-पीटवाने की ज़रूरत नहीं हुआ करती । उपलब्धियाँ स्वयं गवाही देती हैं । वे विज्ञापन या विज्ञप्तियों की मुँहताज़ नहीं हुआ करतीं । उपलब्धियाँ यदि वास्तविक हैं तो जन-समाज उसके गुणानुवाद में कभी नहीं हिचकिचाता । जन-समाज या जनचर्चा से बड़ी कोई मीडिया नहीं होती । ख़ासकर उस जनपद में जहाँ जनसंख्या का बहुलांश लोकनियमों पर आस्था रखता हो, उच्च शिक्षित न हो और आधुनिक संचार साधनों से दूरस्थ हो । यह परिदृश्य धीरे-धीरे छत्तीसगढ़ के पुलिस महकमे में दिखाई देने लगा है । निहायत तटस्थ और निहायत निरंकुश होकर भी पिछले समय में हुए पुलिस-पहलों को सारांश में कहा जा सकता है कि सचमुच छत्तीसगढ़ पुलिस प्रगति के पथ पर है और उसके साथ चलकर छत्तीसगढ़ की जनता को शांतिपूर्ण विकास की इबारत लिखने में सफलता मिलेगी ही । शायद इसलिए आप पुलिस पर भरोसा कर सकते हैं ।

राज्य के उत्तरी और दक्षिणी ध्रुवों में उन नक्सवादियों का किला ढहने की ओर है, जिनका ध्येय विकास नहीं विनाश रहा है । जिनका एकमात्र उद्देश्य देश की अंखड़ता को ध्वस्त करते हुए लालकिले में लाल झंडा फहराना है । हमारे वर्दीधारियों ने पिछले साल लोकतंत्र के सबसे बड़े दुश्मनों से एक यानी नक्सलवाद पर भीषण वार किया है । जान को हथेली पर रखकर, वर्षा, शीत और घाम की परवाह किये बिना कभी किसी मुठभेड़ से मुँह न मोड़ने वाली पुलिस के लिए कामना की जानी चाहिए कि वह हमें इसी तरह सुरक्षित रखे, राज्य को सुरक्षित रखे और देश की अमन-चैन को बरक़रार बनाये रखे । हमारी पुलिस बखूबी इस भूमिका को आत्मसात कर चुकी है । वह केवल उदर पूर्ति के लिए इस जोख़िम भरे उपक्रम में नहीं है । वह नागरिकता की सुरक्षा के लिए सदैव तत्पर है अन्यथा 232 मुठभेड़ों में 67 नक्सलियों को ज़मींदोज़ करने में वह नाकामयाब नहीं हो पाती । पिछले साल 156 नक्सली और 404 संघम सदस्यों को गिरफ्तार करने में जो मेहनत और मशक्कत लगी वह श्री विश्वरंजन जैसे कुशल रणनीतिकार की चौकसी की प्रेरणा का प्रतिफल है । इस दरमियान नक्सलियों के ऐसे 7 कैम्पों को ध्वस्त किया जा सका जहाँ आदिवासियों, गरीबों, दलितों, पिछड़ों, वंचितों के हक के लिए नहीं बल्कि माओवादी वर्चस्व के लिए आत्महंता बनने का प्रशिक्षण दिया जाता है और जहाँ मानवता, बंधुता, विकास, जीवन-सौंदर्य का कोई मायने नहीं । ऐसे आत्महंता नक्सलियों से 244 हथियार बरामद किये गये जिसमें ए.के.-47, आटोमेटिक रायफल, पिस्टल शामिल है । इसी तरह हमारे चौकस सिपाहियों ने ऐसे 83 लैंडमाइंस, 218 डेटोनेटर सहित भारी मात्रा में प्रेशर बम, पेट्रोल बम तथा आई.ई.डी को नाकाम कर दिया जो जाने कितने भोले-भाले और निहत्थे आदिवासियों को मौत के घाट उतार देते । यह हमारे लिए सर्वाधिक दुखद पहलू है कि बौखलाये हुए नक्सलियों की प्रतिहिंसा से हमने पिछले साल 141 छत्तीसगढ़िया मनखे को खो दिया । बात सिर्फ इतनी ही नहीं है, इन नक्सलियों ने अपना वास्तविक रूप दिखाते हुए 264 हत्या के प्रयास किये, 45 डकैतियाँ डाली, 5 जगहों पर लूट-पाट कीं, 11 लोगों को अपहृत और 147 अन्य अमानवीय वारदातों को अंजाम दे दिया । हमारे पुलिस बल के 64 जवान और 16 एसपीओ की राहें उनकी माँए, पत्नी बेटे, परिजन, मित्र-यार, गाँव वाले ताकते रहेंगे पर वे अब कभी नहीं आयेगें - हँसने-खिलखिलाने, गाने-गुनाने । यह विगत वर्षों की तुलना में यद्यपि न्यून है किन्तु यह एक पाठ भी है कि पुलिस सहित आम जनता को और अधिक तादात्मयता से शांति को बरकरार रखने में अपनी कटिबद्धता को तेज करना होगा । इस बीच 139 आम नागरिक, 5 अन्य शासकीय कर्मियों तथा 1 गोपनीय सैनिक भी ऐसी नक्सली हिंसा के शिकार हो गये जिसका मूल चरित्र शांति और विकास के मार्ग में आंतक फैलाकर रोड़ा अटकाना है । वर्ष 2008 शहरी इलाकों में नक्सलियों के शहरी नेटवर्क को तोड़ने का वर्ष सिद्ध हुआ है । रायपुर भिलाई, दुर्ग, बिलासपुर जैसे गैर नक्सल प्रभावित माने जाने वाले जिलों में अराजकतावादियों - आईलम्मा कल्लवल्ला उर्फ कविता उर्फ संध्या उर्फ मीना चौधरी, मालती उर्फ के.एस. प्रिया उर्फ शांतिप्रिया, असित कुमार सेनगुप्ता को गिरफ्तार कर उनसे 5 लाख रूपये नगद, 5 नग वाहन, 47 नग वाकी टॉकी, 9 नग 9 एमएम पिस्टल, 53 नग 9 एमएम पिस्टल के कारतूस, 251 नक्सली वर्दी पेंट, 197 शर्ट, 634 मी. कपड़ा एवं 87 नग देशी पिस्टल जप्त कर उनके आपूर्ति तंत्र को समाप्त करने में बड़ी कामयाबी को गिनाया जाना चाहिए, पर जैसा स्वयं पुलिस के मुखिया मानते हैं कि छत्तीसगढ़ में 50 हजार से अधिक नक्सली सक्रिय हैं का भी खात्मा निकट भविष्य में हो सकेगा ।

नक्सलियों के बौद्धिक अनुसमर्थकों, प्रचारकों के लिए भी यह वर्ष याद रहेगा खासकर आधुनिकतम संचार माध्यमों और इंटरनेट के द्वारा छत्तीसगढ़ की धवल छवि को समूचे संसार में एकतरफ़ा विकृत करने वालों की जिनकी अराजक मंशा को नाकाम करने के लिए अकेले विश्वरंजन का वैचारिक हस्तक्षेप और सक्रियता ही भारी पड़ी । हमें यह कतई नहीं भूलना चाहिए कि नक्सलवाद की लड़ाई जीतने के लिए जितना ज़रूरी कारतूस है उससे कहीं ज़रूरत कलम है । गलत रंग की स्याही और कुतर्कों से आततायियों की हिंसा को किसी भी मुल्क में और किसी भी परिस्थितियों में जायज नहीं ठहराया जा सकता । सुप्रीम कोर्ट और बर्कले विश्वविश्विद्यालय तक हल्ला मचाने वाले मानवाधिकार प्रेमियों को समझना ही होगा कि निरी और बेमौत मरने वाले का भी मानवाधिकार होता है ।

पुलिस तंत्र को कारगर बनाने मे सबसे बड़ी बाधा होती है - कुशल और विश्वसनीय प्रशासन का अभाव । बीते वर्ष में इस दिशा में पुलिस मुख्यालय की रणनीतियों के बारे में फील्ड के पुलिस अधिकारियों और कर्मचारियों को आत्मविश्वास के साथ यह कहते सुना जा सकता है कि पदों की खरीद-फ़रोख्त पर अब लगाम लगने लगा है । इस आत्मविश्वास के मूल में रिक्त पदों की पूर्ति और सभी संवर्गों की समयबद्ध पदोन्नतियों को अंजाम देना भी रहा है । पुलिस बल को अधिक कारगर बनाने की मुहिम पर काम दिखने लगा है । आधुनिकीकरण योजना के लिए भारत सरकार के साथ राज्य सरकार की स्वीकृतियाँ भी रंग लाने लगी हैं ।

नये समय में तकनीकी विस्तार से अपराधों का चरित्र भी बदल रहा है । नये समय में सारे देशों में सायबर अपराधियों की गूँजे भी सुनाई देने लगी हैं जिसके लिए राज्य का पुलिस महकमा अब गंभीरता से सोचने लगा है । अब थानों के कंप्यूटरीकरण पर जोर दिया जा रहा है । आम छत्तीसगढ़िया घर बैठे अपना एफ.आई.आर भी कर सकेगा, ऐसी व्यवस्था भी राज्य का पुलिस तंत्र निकट भविषय में उपलब्ध करा सकेगा ।

यह आम जनता के लिए सुखद कहा जा सकता है कि पुलिस और संवेदनशीलता को एक दूसरे के क़रीब लाने के प्रयास शुरू हो चुके हैं । पिछले वर्षों की कहानियाँ बताती हैं कि आम आदमी किसी वर्दीधारी की चुगली करने से कतराता रहा है, पर इसे विश्वरंजन जी की निजी पहल ही कहें कि उनके कान पुलिस के खिलाफ़ भी सुनने को हर वक़्त सतर्क हैं और उनकी वह कलम भी, जो वे बड़े से बड़े तीसमारखां पुलिस अधिकारी के ख़िलाफ़ निर्णय लेते वक्त टेड़ी-मेढ़ी लकीरें नहीं खेंचती बल्कि सीधी रेखा में बेझिझक चलने लगती है । टोनही जैसे सामाजिक बुराई के बरक्स सामाजिक अभियान की शुरूआत को उनकी जनता के प्रति अतिरिक्त जवाबदेही और उनके वैचारिक दृष्टि का परिचायक कहा जा सकता है । कायदे से विश्वरंजन जी की जो नैतिक जवाबदेही पिछले कुछ माहों में देखने को मिल रही है इसे निचले स्तर तक उतारना अभी शेष है ताकि वह भी अन्य लोगों को विश्वस्त कर सके कि हाँ आप भी छत्तीसगढ़ पुलिस पर भरोसा कर सकते हैं ।



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जयप्रकाश मानस
संपादक
सृजनगाथा